मंगलवार, 13 जनवरी 2009

आओ चेतावनी चेतावनी खेलें...

२६ नवम्बर को मुंबई में हुए आतंकी हमलों के बाद गाज सिर्फ़ भारत के ही कुछ कथित नकारा मंत्रियों पर गिरी। इसके बाद शुरू हुआ पकिस्तान को चेतावनी देने और आतंकी हमलों में शामिल आतंकवादियों के पाकिस्तानी होने के सबूत पाकिस्तान को सौंपने का सिलसिला। उधर पकिस्तान में भी इस घटना को लेकर न सिर्फ़ चर्चाएँ गर्म होने लगी, बल्कि राजनीतिक सरगर्मियां भी तेज़ हो गयीं। उस समय के बाद से अब तक 'चेतावनी का खेल' जारीहै। इस मुकाबले में प्रमुख टीमें भारत और पाकिस्तान हैं और कुछ अन्य टीमें भी इस प्रतियोगिता में अपनी भागीदारी निभा रही है। इस खेल में अम्पायर की भूमिका में अमेरिका है। आइये अब इस खेल के नियमों को जान लें। इस खेल में दोनों प्रमुख टीमों को बयानबाजी के ज़रिये एक दूसरे को युद्ध और परिणाम भुगतने की सिर्फ़ चेतावनी देनी होती है। खेल के अंत तक अम्पायर यह सुनिश्चित करता है की माहौल उत्तेजक बयानों और चेतावनियों से गर्म रहे और दर्शकों का भरपूर मनोरंजन होता रहे। साथ ही टेलिविज़न और अन्य मीडिया को भी मसाला मिलता रहे अपना व्यवसाय बरकरार रखने के लिए। साथ ही अम्पायर को यह भी ध्यान रखना होता है की युद्ध जैसी स्थिति तो बने लेकिन युद्ध किसी भी कीमत पर न हो। इस खेल की एक और खास बात यह है की इसमे जीत या हार मुख्य टीमों में से किसी एक की नहीं बल्कि अम्पायर की होती है। यह खेल अभी पूरी तरह रोमांचक स्थिति में नहीं पहुँच पाया है और अपनी औसत गति से चल रहा है। अब देखना यह है की इस खेल में अम्पायर की जीत होती है या हार।

इस खेल में अम्पायर की भूमिका निभा रहे अमेरिका यदि यह सोच रहा है की उसे जीतना ही है तो कम से कम उसे ९/११ की घटना को याद कर लेना चाहिए। उसे यह भी याद कर लेना चाहिए की किस तरह अमेरिका में ११ सितम्बर को हुए आतंकी हमलों के बाद उसने अफगानिस्तान को लगभग नेस्तनाबूद कर दिया था। भारत द्वारा सारे सबूत देने के बाद भी पाकिस्तान अपनी धरती से संचालित हो रहे आतंकी शिविरों पर कार्रवाई करने से इनकार करने के बाद भी यदि भारत सिर्फ़ चेतावनी का यह खेल ही खेलता रहा और उसने अम्पायर को हराने का प्रयास नहीं किया तो न सिर्फ़ हमारे सेना के जवानों में असंतोष व्याप्त होगा बल्कि देश के नागरिकों को भी सरकार के प्रति विश्वास उठ जाएगा। इसलिए भारत की भलाई इसी में है की इस खेल का अम्पायर इस खेल में हार जाए।

सोमवार, 12 जनवरी 2009

अगले जनम मोहे बेटबा ना कीजो...

मेरा एक साथी नौकरी की तलाश में पिछले दिनों दिल्ली गया था। वह भी पत्रकारिता के क्षेत्र में ही अपने करियर की शुरुआत कर रहा है। उसने न सिर्फ़ दिल्ली की सड़कों की खाक छानी बल्कि कई मीडिया संस्थानों के भी चक्कर लगाये। वैसे उनकी नौकरी की तलाश तो पूरी नहीं हो पाई और उन्हें वापस भोपाल लौटना पड़ा। लेकिन उनके साथ एक बड़ा ही दिलचस्प वाकया हुआ। हुआ यूँ कि वह घूमते-घूमते एक पत्रिका व्यूज़ ऑन न्यूज़ के कार्यालय जा पहुंचे। वहां उनकी मुलाकात पत्रिका कि हेड से हुई। उन्होंने मेरे साथी से न सिर्फ़ आत्मीयता से बात कि बल्कि चाय नाश्ता भी कराया। इस दौरान बातचीत का क्रम चल निकला। राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर काफी देर तक चर्चा होने के बाद जब बात मीडिया में नौकरी कि आई तो मोहतरमा ने मेरे साथी से कहा... काश तुम एक लड़की होते तो तुम्हे नौकरी के लिए इतना भटकना नहीं पड़ता। तब अचानक ही उसे फ़िल्म उम्राओ जान का वह गाना याद आ गया- अबके जनम मोहे बिटिया न कीजो। और मैडम के सामने ही उसके मुह से निकल गया- ...हे भगवान्...अबके जनम मोहे बेटवा न कीजो...