सोमवार, 31 अगस्त 2009

मीडिया में हो रहे शोषण के खिलाफ एक नया ब्लॉग



आज जब मैं ब्लॉग सर्च कर रहा था, तो अचानक एक ब्लॉग पर नज़र पड़ी। नाम था http://www.daityaguru.blogspot.com/ . देखकर उत्सुकता हुई की आख़िर इस ब्लॉग में क्या है? सो मैंने इसपर क्लिक किया। उसके बाद मुझे जो दिखा वो मैं इस पोस्ट के साथ अटैच कर रहा हूँ।

शनिवार, 20 जून 2009

राज ठाकरे की भाषा बोल रहे खांडेकर




दिनांक १९ जून २००९ को दैनिक भास्कर के मध्य प्रदेश के स्टेट एडिटर अभिलाष खांडेकर बुधवार रात एक मुंबई की महिला के साथ हुए गैंग रेप की घटना से काफी आहात हुए। हो भी क्यूँ नही...अपने राज्य के लोगों के साथ किसीका भी अनुराग हो जाता है। उन्होंने अपने अखबार में एक विशेष टिपण्णी लिख डाली। टिपण्णी भी ऐसी की उसमे वे यह भूल गए की इस से किसी अन्य राज्य के लोगो की भावनाए आहात हो सकती है। उन्होंने अपने इस विशेष टिपण्णी में भोपाल में बिगड़ते कानून व्यवस्था को लेकर न सिर्फ़ राज्य सरकार पर कल्कि पुलिस प्रशाशन की कपर भी ऊँगली उठाई। लेकिन इस दौरान वे भोपाल की तुलना बिहार से कर बैठे। उन्होंने लिखा है की भोपाल में इन दिनों जिस तरह से अपराधिक घटनाये घटित हो रही है, उससे ऐसा प्रतीत होता है की हम बिहार के किसी शहर में रह रहे है। उनके कहने का सीधा तात्पर्य यह है की बिहार में कानून व्यवस्था अनियंत्रित है और वहां अराजकता का माहौल है। लोग वहां एक मिनट के लिए भी सुरक्षित नहीं है। लेकिन मैं माननीय स्टेट एडिटर साहब को बताकी मराठी मानुष के प्रति अनुराग के चलते आपने बिहारियों के प्रति इतनी तल्ख़ टिपण्णी करने के पहले जरा सा भी विचार करना उचित नहीं समझा। न ही किसी कानून व्यवस्था का पर ही एक नज़र डाली। मैं उनको बता देना चाहता हूँ की पाँच साल पूर्व जो बिहार की स्थिति थी, आज हालात उसके बिल्कुल विपरीत हैं। आज बिहार में न सिर्फ़ कानून व्यवस्था बहाल है, बल्कि पुलिस प्रशासन में भी लोगों की आस्था जुड़ने लगी है। अब यदि अपराधों और बेलगाम कानून व्यवस्था का तुलनात्मक विश्लेषण करें तो भारतीय अपराध अन्वेषण ब्यूरो की २००८ के वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार मध्यप्रदेश अपराधों के मामलों में पुरे देश में नम्बर एक है। इस सूची में बिहार पांचवे स्थान पर है। फ़िर भी खांडेकर जी को भोपाल की तुलना बिहार से करते हुए लज्जा नहीं आई। शायद खांडेकर जी को मालूम नहीं की बिहार में कोई किसान आत्महत्या नहीं करता क्यूंकि उनमे परिस्थितियों से लड़ने और जीतने का जज्बा मौजूद है। अब बिहार में अपहरण और लूट जैसी घटनाओं में भी अपेक्षाकृत कमी आई है। अब बिहार में विकास दिखने लगा है। अब बिहार में बौद्धिक और आर्थिक तौर पर भी आत्मनिर्भर बन्ने की कोशिश करने लगा है। तभी विपक्षी पार्टी के नेता और कांग्रेस महासचिव राहुल गाँधी ने भी वहां के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार की प्रशंशा की है।
खांडेकर जी ने अपनी टिपण्णी में यह भी लिखा है की भोपाल में बहरी लोगों की जनसँख्या बढती जा रही है। खासकर कॉलेज छात्रों की। इससे वह क्या साबित करना चाह रहे है की यदि बिहारी छात्र लोकतान्त्रिक व्यवस्था में अपनी प्रतिभा के दम पर कहीं विद्यार्जन के लिए जाता है तो वहां अराजकता का माहौल पनपने लगता है। क्या बिहार के लोग दूसरे राज्यों में अपराध को बढ़ावा देने के लिए जाते हैं। क्या खांडेकर जी स्वयं अपने राज्य से दूर किसी अन्य राज्य में अपना जीविकोपार्जन नहीं कर रहे है? ऐसे में उन्हें अन्य राज्यों से आकार भोरने वाले लोगों पर टिपण्णी करने का क्या अधिकार है? लगता है खांडेकर जी का मराठा प्रेम उमड़ने लगा है और उनकी निष्पक्ष पत्रकारिता भी इससे प्रभावित होने लगी है। लगता है जी अब राज ठाकरे की भाषा बोलने लगे है। एक पत्रकार को राजनेता की भाषा बोलने से बचना चाहिए। तभी पत्रकारिता की गरिमा बची रह सकती है। साथ ही बिहारियों की भावनाओं को ठेस पहुँचने के लिए उन्हें सार्वजानिक तौर पर माफ़ी मांगनी चाहिए।

मंगलवार, 13 जनवरी 2009

आओ चेतावनी चेतावनी खेलें...

२६ नवम्बर को मुंबई में हुए आतंकी हमलों के बाद गाज सिर्फ़ भारत के ही कुछ कथित नकारा मंत्रियों पर गिरी। इसके बाद शुरू हुआ पकिस्तान को चेतावनी देने और आतंकी हमलों में शामिल आतंकवादियों के पाकिस्तानी होने के सबूत पाकिस्तान को सौंपने का सिलसिला। उधर पकिस्तान में भी इस घटना को लेकर न सिर्फ़ चर्चाएँ गर्म होने लगी, बल्कि राजनीतिक सरगर्मियां भी तेज़ हो गयीं। उस समय के बाद से अब तक 'चेतावनी का खेल' जारीहै। इस मुकाबले में प्रमुख टीमें भारत और पाकिस्तान हैं और कुछ अन्य टीमें भी इस प्रतियोगिता में अपनी भागीदारी निभा रही है। इस खेल में अम्पायर की भूमिका में अमेरिका है। आइये अब इस खेल के नियमों को जान लें। इस खेल में दोनों प्रमुख टीमों को बयानबाजी के ज़रिये एक दूसरे को युद्ध और परिणाम भुगतने की सिर्फ़ चेतावनी देनी होती है। खेल के अंत तक अम्पायर यह सुनिश्चित करता है की माहौल उत्तेजक बयानों और चेतावनियों से गर्म रहे और दर्शकों का भरपूर मनोरंजन होता रहे। साथ ही टेलिविज़न और अन्य मीडिया को भी मसाला मिलता रहे अपना व्यवसाय बरकरार रखने के लिए। साथ ही अम्पायर को यह भी ध्यान रखना होता है की युद्ध जैसी स्थिति तो बने लेकिन युद्ध किसी भी कीमत पर न हो। इस खेल की एक और खास बात यह है की इसमे जीत या हार मुख्य टीमों में से किसी एक की नहीं बल्कि अम्पायर की होती है। यह खेल अभी पूरी तरह रोमांचक स्थिति में नहीं पहुँच पाया है और अपनी औसत गति से चल रहा है। अब देखना यह है की इस खेल में अम्पायर की जीत होती है या हार।

इस खेल में अम्पायर की भूमिका निभा रहे अमेरिका यदि यह सोच रहा है की उसे जीतना ही है तो कम से कम उसे ९/११ की घटना को याद कर लेना चाहिए। उसे यह भी याद कर लेना चाहिए की किस तरह अमेरिका में ११ सितम्बर को हुए आतंकी हमलों के बाद उसने अफगानिस्तान को लगभग नेस्तनाबूद कर दिया था। भारत द्वारा सारे सबूत देने के बाद भी पाकिस्तान अपनी धरती से संचालित हो रहे आतंकी शिविरों पर कार्रवाई करने से इनकार करने के बाद भी यदि भारत सिर्फ़ चेतावनी का यह खेल ही खेलता रहा और उसने अम्पायर को हराने का प्रयास नहीं किया तो न सिर्फ़ हमारे सेना के जवानों में असंतोष व्याप्त होगा बल्कि देश के नागरिकों को भी सरकार के प्रति विश्वास उठ जाएगा। इसलिए भारत की भलाई इसी में है की इस खेल का अम्पायर इस खेल में हार जाए।

सोमवार, 12 जनवरी 2009

अगले जनम मोहे बेटबा ना कीजो...

मेरा एक साथी नौकरी की तलाश में पिछले दिनों दिल्ली गया था। वह भी पत्रकारिता के क्षेत्र में ही अपने करियर की शुरुआत कर रहा है। उसने न सिर्फ़ दिल्ली की सड़कों की खाक छानी बल्कि कई मीडिया संस्थानों के भी चक्कर लगाये। वैसे उनकी नौकरी की तलाश तो पूरी नहीं हो पाई और उन्हें वापस भोपाल लौटना पड़ा। लेकिन उनके साथ एक बड़ा ही दिलचस्प वाकया हुआ। हुआ यूँ कि वह घूमते-घूमते एक पत्रिका व्यूज़ ऑन न्यूज़ के कार्यालय जा पहुंचे। वहां उनकी मुलाकात पत्रिका कि हेड से हुई। उन्होंने मेरे साथी से न सिर्फ़ आत्मीयता से बात कि बल्कि चाय नाश्ता भी कराया। इस दौरान बातचीत का क्रम चल निकला। राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर काफी देर तक चर्चा होने के बाद जब बात मीडिया में नौकरी कि आई तो मोहतरमा ने मेरे साथी से कहा... काश तुम एक लड़की होते तो तुम्हे नौकरी के लिए इतना भटकना नहीं पड़ता। तब अचानक ही उसे फ़िल्म उम्राओ जान का वह गाना याद आ गया- अबके जनम मोहे बिटिया न कीजो। और मैडम के सामने ही उसके मुह से निकल गया- ...हे भगवान्...अबके जनम मोहे बेटवा न कीजो...